बदलती हुई सांस्कृतिक परंपराएँ
शताब्दी से वीं शताब्दी के अंत तक यूरोप के अनेक देशों में नगरों की संख्या बढ़ रही थी। एक विशेष प्रकार की 'नगरीय-संस्कृति विकसित हो रही थी। नगर के लोग अब यह सोचने लगे थे कि वे गाँव के लोगों से अधिक 'सभ्य' हैं। नगर खासकर फ़्लोरेंस, वेनिस और रोम- कला और विद्या के केंद्र बन गए। नगरों को राजाओं और चर्च से थोड़ी बहुत स्वायत्तता (autonomy) मिली थी। नगर कला और ज्ञान के केन्द्र बन गए। अमीर और अभिजात वर्ग के लोग कलाकारों और लेखकों के आश्रयदाता थे। इसी समय मुद्रण के आविष्कार से अनेक लोगों को चाहे वह दूर-दरात नगरों या देशों में रह रहे हो हुई पुस्तकें उपलब्ध होने लगीं। यूरोप में इतिहास की समझ विकसित होने लगी और लोग अपने 'आधुनिक विश्व' की तुलना यूनानी व रोमन 'प्राचीन दुनिया' से करने लगे थे।
अब यह माना जाने लगा कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार अपना धर्म चुन सकता
है। चर्च के, पृथ्वी के केंद्र संबंधी विश्वासों को वैज्ञानिकों ने गलत सिद्ध कर दिया चूंकि
सौरमंडल को समझने लगे थे। नवीन भौगोलिक ज्ञान ने इस विचार को उलट दिया
कि भूमध्यसागर विश्व का केंद्र है। इस विचार के पीछे यह मान्यता रही थी कि यूरोप विश्व
का केंद्र है (देखिए विषय 8)।
मुद्रित पुस्तकों, चित्रों, मूर्तियों भवनों तथा वस्त्रों से प्राप्त होती है जो यूरोप और अमरीका के ऑभिलेखागारों, कला-चित्रशालाओं और संग्रहालयों में सुरक्षित रखी हुई हैं। उन्नीसवीं शताब्दी के इतिहासकारों ने 'रेनेसी' (शाब्दिक अर्थ पुनर्जन्म हिंदी में पुनर्जागरण शब्द का प्रयोग किया जो उस काल के सांस्कृतिक परिवर्तनों को बढ़ता है। वविद्यालय के इतिहासकार हार्ट lacob Burekhurdi, 1818-97) ने इस पर बहुत अधिक बल दिया। जर्मन इतिहासकार लियॉन रांके Leopold win Ranke. 1795-1886) के विद्यार्थी थे। रांक ने उन्हें यह बताया कि इतिहासकार का पहला उद्देश्य है कि वह राज्यों और राजनीति के बारे में लिखे जिसके लिए वह सरकारी विभागों के कागज और फाइलों का इस्तेमाल करे। पर अपने गुरु के सीमित लक्ष्यों से असंतुष्ट थे। उनके अनुसार इतिहास-लेखन में राजनीति ही सब कुछ नहीं है। इतिहास का सरोकार उतना ही संस्कृति से है जितना राजनीति से not.
शताब्दी से यूरोपीय इतिहास की जानकारी के लिए बहुत अधिक सामग्री स्
1860 ई. में हार्ट ने दिलाईवेशन ऑफ दि रेनेसी इन इटली नामक पुस्तक की
रचना की। इसमें उन्होंने अपने पाठकों का ध्यान साहित्य, वास्तुकला और चित्रकला की
और आकर्षित किया और यह बताया कि चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी तक इटली
के नगरों में किस प्रकार एक मानवतावादी संस्कृति पनप रही थी। उन्होंने
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बदलती हुई सांस्कृतिक परंपराएँ
यह संस्कृति इस नए विश्वास पर आधारित थी कि व्यक्ति अपने बारे में खुद निर्णय लेने और अपनी दक्षता को आगे बढ़ाने में समर्थ है। ऐसा आधुनिक था जबकि मध्यकालीन मानव' पर चर्च का नियंत्रण था।
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इटली के नगरों का पुनरुत्थान
पश्चिम रोम साम्राज्य के पतन के बाद इटली के राजनैतिक और सांस्कृतिक केन्द्रों का विनाश हो गया। इस समय कोई भी एकीकृत सरकार नहीं थी और रोम का पोप जो अपने राज्य में बेशक सार्वभौम था, समस्त यूरोपीय राजनीति में इतना मजबूत नहीं था।
एक अरसे से पश्चिमी यूरोप के क्षेत्र, सामंती संबंधों के कारण नया रूप ले रहे थे और लातिनी चर्च के नेतृत्व में उनका एकीकरण हो रहा था। इसी समय पूर्वी यूरोप बाइजेंटाइन साम्राज्य के शासन में बदल रहा था। उधर कुछ और पश्चिम में इस्लाम एक सांझी सभ्यता का निर्माण कर रहा था। इटली एक कमतौर देश था और अनेक टुकड़ों में बँटा हुआ था। परंतु इन्हीं परिवर्तनों ने इतालवी संस्कृति के पुनरुत्थान में सहायता प्रदान की।
बाइसेंटाइन साम्राज्य और इस्लामी देशों के बीच व्यापार के बढ़ने से इटली के तटवर्ती बंदरगाह। पुनर्जीवित हो गए। बारहवीं शताब्दी से जब मंगोलों ने चीन के साथ 'रेशम मार्ग' (देखिए विषय 5) से व्यापार आरंभ किया तो इसके कारण पश्चिमी यूरोपीय देशों के व्यापार को बढ़ावा मिला। इसमें इटली के नगरों ने मुख्य भूमिका निभाई। अब वे अपने को एक शक्तिशाली साम्राज्य के अंग She
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